कर के देखो
लगता है, की अब तो आदत हो चूकी है,
ग़ुलामी करने की!
शारीरिक ना सही- पर मानसिक, वैचारिक या भावनिक !
बिना कुछ सोचे-समझे ही बहकावे में आ जाते है!
शायद- कोई नया ‘ जालियाँवाला’ होने के बाद ही जाग आए!
आदत हे चूकी है, रास्तोंपर गड्ढों की!
पहले रास्तोंपर गड्ढे दिखते थे,
और अब गड्ढों में रास्ता!
शायद सारे रास्तें बंद हो जाने के बाद ही जाग आए!
आदत हो चूकी है- रीश्वतखोरी और भ्रष्टाचार की!
शुरूआत सरकारी बाबू को ‘चायपानी’ पिलानेसे
और आगे ‘टू जी’ या ‘कोयला’ घोटाले तक-
जैसेकी भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार हो
शायद- देश को गिरवी रखने के बाद ही जाग आए!
आदत हो चूकी है- गन्दगी और अनारोग्य की!
सभी के मुँह में घिसीपिटी डायलॉग-
“कितना गंदा है हमारा देश!!”
और घिसीपिटी क्रूती- “रास्तोंपर ही थूँक देना”
फिर क्यों न हमारा देश गन्दा होगा?
शायद कोई महामारी होनेके बाद ही जाग आए!
आदत हो चूकी है- अन्याय सहने की,
गुंडागर्दी, हत्याएँ या आत्महत्या!
अखबारें भरी पड़ी रहती है इन्हीं ख़बरों से!
पर इन सब बातों से हमें क्या?
जिन लोगोंपर गुज़रती हैं, वे भुगतें!
शायद हम पर गुजरनें के बाद ही जाग आए!
“चलता है, चलता है।” – पर आख़िर कब तक?
क्यों ना हम ख़ुद ही बनें वो भगवान का अवतार?
किसी भी बदलाव की शुरूआत ख़ुद से ही तो होती है।
‘करके देखो यार!’, करने में ही नई क्रांती है।
मुझमें भी वो ‘आग’ है यह कहता मेरा रक्त है।
अब गहरी नींद से जाग, क्योंकि जागने का यहीं सही वक़्त हैं।
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